महल में पधारने के लिए श्रीराम को विभीषण की विनती
करि बिनती जब संभु सिधाए । तब प्रभु निकट बिभीषनु आए ॥
नाइ चरन सिरु कह मृदु बानी । बिनय सुनहु प्रभु सारँगपानी ॥१॥
सकुल सदल प्रभु रावन मार यो । पावन जस त्रिभुवन बिस्तार यो ॥
दीन मलीन हीन मति जाती । मो पर कृपा कीन्हि बहु भाँती ॥२॥
अब जन गृह पुनीत प्रभु कीजे । मज्जनु करिअ समर श्रम छीजे ॥
देखि कोस मंदिर संपदा । देहु कृपाल कपिन्ह कहुँ मुदा ॥३॥
सब बिधि नाथ मोहि अपनाइअ । पुनि मोहि सहित अवधपुर जाइअ ॥
सुनत बचन मृदु दीनदयाला । सजल भए द्वौ नयन बिसाला ॥४॥
(दोहा)
तोर कोस गृह मोर सब सत्य बचन सुनु भ्रात ।
भरत दसा सुमिरत मोहि निमिष कल्प सम जात ॥ ११६(क) ॥
तापस बेष गात कृस जपत निरंतर मोहि ।
देखौं बेगि सो जतनु करु सखा निहोरउँ तोहि ॥ ११६(ख) ॥
बीतें अवधि जाउँ जौं जिअत न पावउँ बीर ।
सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु पुनि पुनि पुलक सरीर ॥ ११६(ग) ॥
करेहु कल्प भरि राजु तुम्ह मोहि सुमिरेहु मन माहिं ।
पुनि मम धाम पाइहहु जहाँ संत सब जाहिं ॥ ११६(घ) ॥