विभीषण ने श्रीराम को रावण के अमरत्व का रहस्य बताया
काटत बढ़हिं सीस समुदाई । जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई ॥
मरइ न रिपु श्रम भयउ बिसेषा । राम बिभीषन तन तब देखा ॥१॥
उमा काल मर जाकीं ईछा । सो प्रभु जन कर प्रीति परीछा ॥
सुनु सरबग्य चराचर नायक । प्रनतपाल सुर मुनि सुखदायक ॥२॥
नाभिकुंड पियूष बस याकें । नाथ जिअत रावनु बल ताकें ॥
सुनत बिभीषन बचन कृपाला । हरषि गहे कर बान कराला ॥३॥
असुभ होन लागे तब नाना । रोवहिं खर सृकाल बहु स्वाना ॥
बोलहि खग जग आरति हेतू । प्रगट भए नभ जहँ तहँ केतू ॥४॥
दस दिसि दाह होन अति लागा । भयउ परब बिनु रबि उपरागा ॥
मंदोदरि उर कंपति भारी । प्रतिमा स्त्रवहिं नयन मग बारी ॥५॥
(छंद)
प्रतिमा रुदहिं पबिपात नभ अति बात बह डोलति मही ।
बरषहिं बलाहक रुधिर कच रज असुभ अति सक को कही ॥
उतपात अमित बिलोकि नभ सुर बिकल बोलहि जय जए ।
सुर सभय जानि कृपाल रघुपति चाप सर जोरत भए ॥
(दोहा)
खैचि सरासन श्रवन लगि छाड़े सर एकतीस ।
रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फनीस ॥ १०२ ॥