रामकथा किसे सुनानी चाहिए
मति अनुरूप कथा मैं भाषी । जद्यपि प्रथम गुप्त करि राखी ॥
तव मन प्रीति देखि अधिकाई । तब मैं रघुपति कथा सुनाई ॥१॥
यह न कहिअ सठही हठसीलहि । जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि ॥
कहिअ न लोभिहि क्रोधहि कामिहि । जो न भजइ सचराचर स्वामिहि ॥२॥
द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ कबहूँ । सुरपति सरिस होइ नृप जबहूँ ॥
राम कथा के तेइ अधिकारी । जिन्ह कें सतसंगति अति प्यारी ॥३॥
गुर पद प्रीति नीति रत जेई । द्विज सेवक अधिकारी तेई ॥
ता कहँ यह बिसेष सुखदाई । जाहि प्रानप्रिय श्रीरघुराई ॥४॥
(दोहा)
राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बान ।
भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान ॥ १२८ ॥