कौशल्या ने भरत को ढाढस बँधाई
मुख प्रसन्न मन रंग न रोषू । सब कर सब बिधि करि परितोषू ॥
चले बिपिन सुनि सिय सँग लागी । रहइ न राम चरन अनुरागी ॥१॥
सुनतहिं लखनु चले उठि साथा । रहहिं न जतन किए रघुनाथा ॥
तब रघुपति सबही सिरु नाई । चले संग सिय अरु लघु भाई ॥२॥
रामु लखनु सिय बनहि सिधाए । गइउँ न संग न प्रान पठाए ॥
यहु सबु भा इन्ह आँखिन्ह आगें । तउ न तजा तनु जीव अभागें ॥३॥
मोहि न लाज निज नेहु निहारी । राम सरिस सुत मैं महतारी ॥
जिऐ मरै भल भूपति जाना । मोर हृदय सत कुलिस समाना ॥४॥
(दोहा)
कौसल्या के बचन सुनि भरत सहित रनिवास ।
ब्याकुल बिलपत राजगृह मानहुँ सोक नेवासु ॥ १६६ ॥