महाराजा जनक सीता को मिलते है
तापस बेष जनक सिय देखी । भयउ पेमु परितोषु बिसेषी ॥
पुत्रि पवित्र किए कुल दोऊ । सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ ॥१॥
जिति सुरसरि कीरति सरि तोरी । गवनु कीन्ह बिधि अंड करोरी ॥
गंग अवनि थल तीनि बड़ेरे । एहिं किए साधु समाज घनेरे ॥२॥
पितु कह सत्य सनेहँ सुबानी । सीय सकुच महुँ मनहुँ समानी ॥
पुनि पितु मातु लीन्ह उर लाई । सिख आसिष हित दीन्हि सुहाई ॥३॥
कहति न सीय सकुचि मन माहीं । इहाँ बसब रजनीं भल नाहीं ॥
लखि रुख रानि जनायउ राऊ । हृदयँ सराहत सीलु सुभाऊ ॥४॥
(दोहा)
बार बार मिलि भेंट सिय बिदा कीन्ह सनमानि ।
कही समय सिर भरत गति रानि सुबानि सयानि ॥ २८७ ॥