याज्ञवल्क्य भरद्वाज संवाद
(चौपाई)
हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं । ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं ॥
तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला । नित नूतन सुंदर सब काला ॥१॥
त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया । सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया ॥
एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ । तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ ॥२॥
निज कर डासि नागरिपु छाला । बैठै सहजहिं संभु कृपाला ॥
कुंद इंदु दर गौर सरीरा । भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा ॥३॥
तरुन अरुन अंबुज सम चरना । नख दुति भगत हृदय तम हरना ॥
भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी । आननु सरद चंद छबि हारी ॥४॥
(दोहा)
जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल ।
नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल ॥ १०६ ॥
(દોહરો)
જટામુકુટ ગંગા શિરે કમળનયન સુવિશાળ,
નીલકંઠ સૌંદર્યસદન, બીજચંદ્ર છે ભાલ.