याज्ञवल्क्य भरद्वाज संवाद
(चौपाई)
मैं जाना तुम्हार गुन सीला । कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला ॥
सुनु मुनि आजु समागम तोरें । कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें ॥१॥
राम चरित अति अमित मुनिसा । कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा ॥
तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी । सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी ॥२॥
सारद दारुनारि सम स्वामी । रामु सूत्रधर अंतरजामी ॥
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी । कबि उर अजिर नचावहिं बानी ॥३॥
प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा । बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा ॥
परम रम्य गिरिबरु कैलासू । सदा जहाँ सिव उमा निवासू ॥४॥
(दोहा)
सिद्ध तपोधन जोगिजन सूर किंनर मुनिबृंद ।
बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिब सुखकंद ॥ १०५ ॥