सुग्रीव ने अपनी गलति के लिए क्षमा माँगी
नाइ चरन सिरु कह कर जोरी । नाथ मोहि कछु नाहिन खोरी ॥
अतिसय प्रबल देव तब माया । छूटइ राम करहु जौं दाया ॥१॥
बिषय बस्य सुर नर मुनि स्वामी । मैं पावँर पसु कपि अति कामी ॥
नारि नयन सर जाहि न लागा । घोर क्रोध तम निसि जो जागा ॥२॥
लोभ पाँस जेहिं गर न बँधाया । सो नर तुम्ह समान रघुराया ॥
यह गुन साधन तें नहिं होई । तुम्हरी कृपाँ पाव कोइ कोई ॥३॥
तब रघुपति बोले मुसकाई । तुम्ह प्रिय मोहि भरत जिमि भाई ॥
अब सोइ जतनु करहु मन लाई । जेहि बिधि सीता कै सुधि पाई ॥४॥
(दोहा)
एहि बिधि होत बतकही आए बानर जूथ ।
नाना बरन सकल दिसि देखिअ कीस बरुथ ॥ २१ ॥