लंका के प्रवेशद्वार पर हनुमानजी की लंकिनी से भेट
मसक समान रूप कपि धरी । लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी ॥
नाम लंकिनी एक निसिचरी । सो कह चलेसि मोहि निंदरी ॥१॥
Masak samaan roop kapi charee Lankahi chaleu sumiri naraharee ।
Naam Lankinee ek nisicharee So kah chalesi mohi nindaree ॥
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा । मोर अहार जहाँ लगि चोरा ॥
मुठिका एक महा कपि हनी । रुधिर बमत धरनीं डनमनी ॥२॥
Jaanehi nahee maramu sath mora Mor ahar jahaa lagi chora ।
Muthika ek maha kapi hanee Rudhir bamat dharanee dhanamanee ॥
पुनि संभारि उठी सो लंका । जोरि पानि कर बिनय ससंका ॥
जब रावनहि ब्रह्म कर दीन्हा । चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा ॥३॥
Puni sambhari uthee so Lanka Jori paani kar binay sasanka ।
Jab Ravanahi brahm bar deenha Chalat biranchi kaha mohi cheenha ॥
बिकल होसि तैं कपि कें मारे । तब जानेसु निसिचर संघारे ॥
तात मोर अति पुन्य बहूता । देखेउँ नयन राम कर दूता ॥४॥
Bikal hosi tai kapi ke mare Tab jaanesu nisichar sanghare ।
Taat mor ati punya bahoota Dekheu nayan Raam kar doota ॥
(दोहा)
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग ।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥ ४ ॥
Taat swarg apabarg sukh dharia tula ek ang ।
Tool na taahi sakal mili jo such lav satsang ॥