कुंभकर्ण की युद्धभूमि में विभीषण से भेंट
महिष खाइ करि मदिरा पाना । गर्जा बज्राघात समाना ॥
कुंभकरन दुर्मद रन रंगा । चला दुर्ग तजि सेन न संगा ॥१॥
देखि बिभीषनु आगें आयउ । परेउ चरन निज नाम सुनायउ ॥
अनुज उठाइ हृदयँ तेहि लायो । रघुपति भक्त जानि मन भायो ॥२॥
तात लात रावन मोहि मारा । कहत परम हित मंत्र बिचारा ॥
तेहिं गलानि रघुपति पहिं आयउँ । देखि दीन प्रभु के मन भायउँ ॥३॥
सुनु सुत भयउ कालबस रावन । सो कि मान अब परम सिखावन ॥
धन्य धन्य तैं धन्य बिभीषन । भयहु तात निसिचर कुल भूषन ॥४॥
बंधु बंस तैं कीन्ह उजागर । भजेहु राम सोभा सुख सागर ॥५॥
(दोहा)
बचन कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रनधीर ।
जाहु न निज पर सूझ मोहि भयउँ कालबस बीर ॥ ६४ ॥