युद्धभूमि में कुंभकर्ण का आतंक
बंधु बचन सुनि चला बिभीषन । आयउ जहँ त्रैलोक बिभूषन ॥
नाथ भूधराकार सरीरा । कुंभकरन आवत रनधीरा ॥१॥
एतना कपिन्ह सुना जब काना । किलकिलाइ धाए बलवाना ॥
लिए उठाइ बिटप अरु भूधर । कटकटाइ डारहिं ता ऊपर ॥२॥
कोटि कोटि गिरि सिखर प्रहारा । करहिं भालु कपि एक एक बारा ॥
मुर यो न मन तनु टरयो न टारयो ।जिमि गज अर्क फलनि को मार्यो॥३॥
तब मारुतसुत मुठिका हन्यो । पर यो धरनि ब्याकुल सिर धुन्यो ॥
पुनि उठि तेहिं मारेउ हनुमंता । घुर्मित भूतल परेउ तुरंता ॥४॥
पुनि नल नीलहि अवनि पछारेसि । जहँ तहँ पटकि पटकि भट डारेसि ॥
चली बलीमुख सेन पराई । अति भय त्रसित न कोउ समुहाई ॥५॥
(दोहा)
अंगदादि कपि मुरुछित करि समेत सुग्रीव ।
काँख दाबि कपिराज कहुँ चला अमित बल सींव ॥ ६५ ॥