अंगद और रावण का संवाद
सठ साखामृग जोरि सहाई । बाँधा सिंधु इहइ प्रभुताई ॥
नाघहिं खग अनेक बारीसा । सूर न होहिं ते सुनु सब कीसा ॥१॥
मम भुज सागर बल जल पूरा । जहँ बूड़े बहु सुर नर सूरा ॥
बीस पयोधि अगाध अपारा । को अस बीर जो पाइहि पारा ॥२॥
दिगपालन्ह मैं नीर भरावा । भूप सुजस खल मोहि सुनावा ॥
जौं पै समर सुभट तव नाथा । पुनि पुनि कहसि जासु गुन गाथा ॥३॥
तौ बसीठ पठवत केहि काजा । रिपु सन प्रीति करत नहिं लाजा ॥
हरगिरि मथन निरखु मम बाहू । पुनि सठ कपि निज प्रभुहि सराहू ॥४॥
(दोहा)
सूर कवन रावन सरिस स्वकर काटि जेहिं सीस ।
हुने अनल अति हरष बहु बार साखि गौरीस ॥ २८ ॥