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अंगद और रावण का संवाद
जरत बिलोकेउँ जबहिं कपाला । बिधि के लिखे अंक निज भाला ॥
नर कें कर आपन बध बाँची । हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची ॥१॥
सोउ मन समुझि त्रास नहिं मोरें । लिखा बिरंचि जरठ मति भोरें ॥
आन बीर बल सठ मम आगें । पुनि पुनि कहसि लाज पति त्यागे ॥२॥
कह अंगद सलज्ज जग माहीं । रावन तोहि समान कोउ नाहीं ॥
लाजवंत तव सहज सुभाऊ । निज मुख निज गुन कहसि न काऊ ॥३॥
सिर अरु सैल कथा चित रही । ताते बार बीस तैं कही ॥
सो भुजबल राखेउ उर घाली । जीतेहु सहसबाहु बलि बाली ॥४॥
सुनु मतिमंद देहि अब पूरा । काटें सीस कि होइअ सूरा ॥
इंद्रजालि कहु कहिअ न बीरा । काटइ निज कर सकल सरीरा ॥५॥
(दोहा)
जरहिं पतंग मोह बस भार बहहिं खर बृंद ।
ते नहिं सूर कहावहिं समुझि देखु मतिमंद ॥ २९ ॥