सुग्रीव को दंड देने हेतु किष्किंधा गये लक्ष्मण
इहाँ पवनसुत हृदयँ बिचारा । राम काजु सुग्रीवँ बिसारा ॥
निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा । चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा ॥१॥
सुनि सुग्रीवँ परम भय माना । बिषयँ मोर हरि लीन्हेउ ग्याना ॥
अब मारुतसुत दूत समूहा । पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा ॥२॥
कहहु पाख महुँ आव न जोई । मोरें कर ता कर बध होई ॥
तब हनुमंत बोलाए दूता । सब कर करि सनमान बहूता ॥३॥
भय अरु प्रीति नीति देखाई । चले सकल चरनन्हि सिर नाई ॥
एहि अवसर लछिमन पुर आए । क्रोध देखि जहँ तहँ कपि धाए ॥४॥
(दोहा)
धनुष चढ़ाइ कहा तब जारि करउँ पुर छार ।
ब्याकुल नगर देखि तब आयउ बालिकुमार ॥ १९ ॥