संपाति से भेंट
एहि बिधि कथा कहहि बहु भाँती गिरि कंदराँ सुनी संपाती ॥
बाहेर होइ देखि बहु कीसा । मोहि अहार दीन्ह जगदीसा ॥१॥
आजु सबहि कहँ भच्छन करऊँ । दिन बहु चले अहार बिनु मरऊँ ॥
कबहुँ न मिल भरि उदर अहारा । आजु दीन्ह बिधि एकहिं बारा ॥२॥
डरपे गीध बचन सुनि काना । अब भा मरन सत्य हम जाना ॥
कपि सब उठे गीध कहँ देखी । जामवंत मन सोच बिसेषी ॥३॥
कह अंगद बिचारि मन माहीं । धन्य जटायू सम कोउ नाहीं ॥
राम काज कारन तनु त्यागी । हरि पुर गयउ परम बड़ भागी ॥४॥
सुनि खग हरष सोक जुत बानी । आवा निकट कपिन्ह भय मानी ॥
तिन्हहि अभय करि पूछेसि जाई । कथा सकल तिन्ह ताहि सुनाई ॥५॥
सुनि संपाति बंधु कै करनी । रघुपति महिमा बधुबिधि बरनी ॥६॥
(दोहा)
मोहि लै जाहु सिंधुतट देउँ तिलांजलि ताहि ।
बचन सहाइ करवि मैं पैहहु खोजहु जाहि ॥ २७ ॥