वानरसेना सीता की खोज में निकली
कतहुँ होइ निसिचर सैं भेटा । प्रान लेहिं एक एक चपेटा ॥
बहु प्रकार गिरि कानन हेरहिं । कोउ मुनि मिलत ताहि सब घेरहिं ॥
लागि तृषा अतिसय अकुलाने । मिलइ न जल घन गहन भुलाने ॥
मन हनुमान कीन्ह अनुमाना । मरन चहत सब बिनु जल पाना ॥२॥
चढ़ि गिरि सिखर चहूँ दिसि देखा । भूमि बिबिर एक कौतुक पेखा ॥
चक्रबाक बक हंस उड़ाहीं । बहुतक खग प्रबिसहिं तेहि माहीं ॥३॥
गिरि ते उतरि पवनसुत आवा । सब कहुँ लै सोइ बिबर देखावा ॥
आगें कै हनुमंतहि लीन्हा । पैठे बिबर बिलंबु न कीन्हा ॥४॥
(दोहा)
दीख जाइ उपवन बर सर बिगसित बहु कंज ।
मंदिर एक रुचिर तहँ बैठि नारि तप पुंज ॥ २४ ॥