रावण का यज्ञ वानरो ने रोका
इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई । सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई ॥
नाथ करइ रावन एक जागा । सिद्ध भएँ नहिं मरिहि अभागा ॥१॥
पठवहु नाथ बेगि भट बंदर । करहिं बिधंस आव दसकंधर ॥
प्रात होत प्रभु सुभट पठाए । हनुमदादि अंगद सब धाए ॥२॥
कौतुक कूदि चढ़े कपि लंका । पैठे रावन भवन असंका ॥
जग्य करत जबहीं सो देखा । सकल कपिन्ह भा क्रोध बिसेषा ॥३॥
रन ते निलज भाजि गृह आवा । इहाँ आइ बक ध्यान लगावा ॥
अस कहि अंगद मारा लाता । चितव न सठ स्वारथ मन राता ॥४॥
(छंद)
नहिं चितव जब करि कोप कपि गहि दसन लातन्ह मारहीं ।
धरि केस नारि निकारि बाहेर तेऽतिदीन पुकारहीं ॥
तब उठेउ क्रुद्ध कृतांत सम गहि चरन बानर डारई ।
एहि बीच कपिन्ह बिधंस कृत मख देखि मन महुँ हारई ॥
(दोहा)
जग्य बिधंसि कुसल कपि आए रघुपति पास ।
चलेउ निसाचर क्रुर्द्ध होइ त्यागि जिवन कै आस ॥ ८५ ॥