शरद ऋतु का आगमन
बरषा बिगत सरद रितु आई । लछिमन देखहु परम सुहाई ॥
फूलें कास सकल महि छाई । जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई ॥१॥
उदित अगस्ति पंथ जल सोषा । जिमि लोभहि सोषइ संतोषा ॥
सरिता सर निर्मल जल सोहा । संत हृदय जस गत मद मोहा ॥२॥
रस रस सूख सरित सर पानी । ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी ॥
जानि सरद रितु खंजन आए । पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए ॥३॥
पंक न रेनु सोह असि धरनी । नीति निपुन नृप कै जसि करनी ॥
जल संकोच बिकल भइँ मीना । अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना ॥४॥
बिनु धन निर्मल सोह अकासा । हरिजन इव परिहरि सब आसा ॥
कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी । कोउ एक पाव भगति जिमि मोरी ॥५॥
(दोहा)
चले हरषि तजि नगर नृप तापस बनिक भिखारि ।
जिमि हरिभगत पाइ श्रम तजहि आश्रमी चारि ॥ १६ ॥