अयोध्या से बारात निकली
(चौपाई)
बाँधे बिरद बीर रन गाढ़े । निकसि भए पुर बाहेर ठाढ़े ॥
फेरहिं चतुर तुरग गति नाना । हरषहिं सुनि सुनि पवन निसाना ॥१॥
रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए । ध्वज पताक मनि भूषन लाए ॥
चवँर चारु किंकिन धुनि करही । भानु जान सोभा अपहरहीं ॥२॥
सावँकरन अगनित हय होते । ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते ॥
सुंदर सकल अलंकृत सोहे । जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे ॥३॥
जे जल चलहिं थलहि की नाई । टाप न बूड़ बेग अधिकाई ॥
अस्त्र सस्त्र सबु साजु बनाई । रथी सारथिन्ह लिए बोलाई ॥४॥
(दोहा)
चढ़ि चढ़ि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात ।
होत सगुन सुन्दर सबहि जो जेहि कारज जात ॥ २९९ ॥