राम ने भरत को आलिंगन दिया
सो कुचालि सब कहँ भइ नीकी । अवधि आस सम जीवनि जी की ॥
नतरु लखन सिय सम बियोगा । हहरि मरत सब लोग कुरोगा ॥१॥
रामकृपाँ अवरेब सुधारी । बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी ॥
भेंटत भुज भरि भाइ भरत सो । राम प्रेम रसु कहि न परत सो ॥२॥
तन मन बचन उमग अनुरागा । धीर धुरंधर धीरजु त्यागा ॥
बारिज लोचन मोचत बारी । देखि दसा सुर सभा दुखारी ॥३॥
मुनिगन गुर धुर धीर जनक से । ग्यान अनल मन कसें कनक से ॥
जे बिरंचि निरलेप उपाए । पदुम पत्र जिमि जग जल जाए ॥४॥
(दोहा)
तेउ बिलोकि रघुबर भरत प्रीति अनूप अपार ।
भए मगन मन तन बचन सहित बिराग बिचार ॥ ३१७ ॥