सुग्रीव ने बालि को युद्ध के लिए ललकारा
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी । तिन्हहि बिलोकत पातक भारी ॥
निज दुख गिरि सम रज करि जाना । मित्रक दुख रज मेरु समाना ॥१॥
जिन्ह कें असि मति सहज न आई । ते सठ कत हठि करत मिताई ॥
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा । गुन प्रगटे अवगुनन्हि दुरावा ॥२॥
देत लेत मन संक न धरई । बल अनुमान सदा हित करई ॥
बिपति काल कर सतगुन नेहा । श्रुति कह संत मित्र गुन एहा ॥३॥
आगें कह मृदु बचन बनाई । पाछें अनहित मन कुटिलाई ॥
जा कर चित अहि गति सम भाई । अस कुमित्र परिहरेहि भलाई ॥४॥
सेवक सठ नृप कृपन कुनारी । कपटी मित्र सूल सम चारी ॥
सखा सोच त्यागहु बल मोरें । सब बिधि घटब काज मैं तोरें ॥५॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा । बालि महाबल अति रनधीरा ॥
दुंदुभी अस्थि ताल देखराए । बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए ॥६॥
देखि अमित बल बाढ़ी प्रीती । बालि बधब इन्ह भइ परतीती ॥
बार बार नावइ पद सीसा । प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा ॥७॥
उपजा ग्यान बचन तब बोला । नाथ कृपाँ मन भयउ अलोला ॥
सुख संपति परिवार बड़ाई । सब परिहरि करिहउँ सेवकाई ॥८॥
ए सब रामभगति के बाधक । कहहिं संत तब पद अवराधक ॥
सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं । माया कृत परमारथ नाहीं ॥९॥
बालि परम हित जासु प्रसादा । मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा ॥
सपनें जेहि सन होइ लराई । जागें समुझत मन सकुचाई ॥१०॥
अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँती । सब तजि भजनु करौं दिन राती ॥
सुनि बिराग संजुत कपि बानी । बोले बिहँसि रामु धनुपानी ॥११॥
जो कछु कहेहु सत्य सब सोई । सखा बचन मम मृषा न होई ॥
नट मरकट इव सबहि नचावत । रामु खगेस बेद अस गावत ॥१२॥
लै सुग्रीव संग रघुनाथा । चले चाप सायक गहि हाथा ॥
तब रघुपति सुग्रीव पठावा । गर्जेसि जाइ निकट बल पावा ॥१३॥
सुनत बालि क्रोधातुर धावा । गहि कर चरन नारि समुझावा ॥
सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा । ते द्वौ बंधु तेज बल सींवा ॥१४॥
कोसलेस सुत लछिमन रामा । कालहु जीति सकहिं संग्रामा ॥१५॥
(दोहा)
कह बालि सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ ।
जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि होउँ सनाथ ॥ ७ ॥