वर्षाऋतु का वर्णन
सुंदर बन कुसुमित अति सोभा । गुंजत मधुप निकर मधु लोभा ॥
कंद मूल फल पत्र सुहाए । भए बहुत जब ते प्रभु आए ॥१॥
देखि मनोहर सैल अनूपा । रहे तहँ अनुज सहित सुरभूपा ॥
मधुकर खग मृग तनु धरि देवा । करहिं सिद्ध मुनि प्रभु कै सेवा ॥२॥
मंगलरुप भयउ बन तब ते । कीन्ह निवास रमापति जब ते ॥
फटिक सिला अति सुभ्र सुहाई । सुख आसीन तहाँ द्वौ भाई ॥३॥
कहत अनुज सन कथा अनेका । भगति बिरति नृपनीति बिबेका ॥
बरषा काल मेघ नभ छाए । गरजत लागत परम सुहाए ॥४॥
(दोहा)
लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पैखि ।
गृही बिरति रत हरष जस बिष्नु भगत कहुँ देखि ॥ १३ ॥