अंगद और रावण का संवाद
अब जनि बतबढ़ाव खल करही । सुनु मम बचन मान परिहरही ॥
दसमुख मैं न बसीठीं आयउँ । अस बिचारि रघुबीष पठायउँ ॥१॥
बार बार अस कहइ कृपाला । नहिं गजारि जसु बधें सृकाला ॥
मन महुँ समुझि बचन प्रभु केरे । सहेउँ कठोर बचन सठ तेरे ॥२॥
नाहिं त करि मुख भंजन तोरा । लै जातेउँ सीतहि बरजोरा ॥
जानेउँ तव बल अधम सुरारी । सूनें हरि आनिहि परनारी ॥३॥
तैं निसिचर पति गर्ब बहूता । मैं रघुपति सेवक कर दूता ॥
जौं न राम अपमानहि डरउँ । तोहि देखत अस कौतुक करऊँ ॥४॥
(दोहा)
तोहि पटकि महि सेन हति चौपट करि तव गाउँ ।
तव जुबतिन्ह समेत सठ जनकसुतहि लै जाउँ ॥ ३० ॥