सीता की माहिती न मिलने से वानरसेना हताश
इहाँ बिचारहिं कपि मन माहीं । बीती अवधि काज कछु नाहीं ॥
सब मिलि कहहिं परस्पर बाता । बिनु सुधि लएँ करब का भ्राता ॥१॥
कह अंगद लोचन भरि बारी । दुहुँ प्रकार भइ मृत्यु हमारी ॥
इहाँ न सुधि सीता कै पाई । उहाँ गएँ मारिहि कपिराई ॥२॥
पिता बधे पर मारत मोही । राखा राम निहोर न ओही ॥
पुनि पुनि अंगद कह सब पाहीं । मरन भयउ कछु संसय नाहीं ॥३॥
अंगद बचन सुनत कपि बीरा । बोलि न सकहिं नयन बह नीरा ॥
छन एक सोच मगन होइ रहे । पुनि अस वचन कहत सब भए ॥४॥
हम सीता कै सुधि लिन्हें बिना । नहिं जैंहैं जुबराज प्रबीना ॥
अस कहि लवन सिंधु तट जाई । बैठे कपि सब दर्भ डसाई ॥५॥
जामवंत अंगद दुख देखी । कहिं कथा उपदेस बिसेषी ॥
तात राम कहुँ नर जनि मानहु । निर्गुन ब्रम्ह अजित अज जानहु ॥६॥
(दोहा)
निज इच्छा प्रभु अवतरइ सुर महि गो द्विज लागि ।
सगुन उपासक संग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि ॥ २६ ॥